Wednesday, September 23, 2009

साहित्य की जगह

हिंदी के प्रसिद्ध कवि शमशेर बहादुर सिंह की कविता है `लौट आ ओ धार / टूट मत ओ साँझ के पत्थर / हृदय पर /लौट आ ओ फूल के पंखुरी /फिर फूल में लग जा.......
लेकिन एक कविता की यह कामना जीवन में संभव नहीं है.धार लौटती नहीं है पंखुरियां वापस फूल पर लगती नहीं है.समय की एक मौन लम्बी आह के साथ सब व्यतीत होता जाता है लौटकर नहीं आता.फिर जीवन में जो असंभव है ,हम उसे कविता में संभव क्यों बनाना चाहते है ? क्या समय के विरुध यह संग्राम,अपने जिए और किये को उलट-पुलट कर देखने की,उसे नए सिरे से जीने की,उसे नया रूप देने की इच्छा का परिणाम है. क्या अजरता, अमरता और अनश्वरता प्राप्त करने की बेहद स्थूल महत्वाकांक्षा हमारी कविताओं में कुछ सूक्ष्म रूप में दिखाई पड़ती है ?या वह उस प्रश्नाकुलता का नतीजा है,जो बीमारी, बुढापे और मृत्यु के सामने स्तब्ध और आर्त खड़े किसी बुध को सात वर्ष की तपस्या और सत्य की वीणा तक ले जाती है, जिसके तार न बहुत कसने है,न ढीले छोड़ देने है ?
साहित्य का दरअसल मूल्य यही है. वह निर्वाण का खोज लिया गया रास्ता नहीं है.वह इस रस्ते पर प्रश्न वाचक मोड़ है.वह जीवन के तथाकथित बड़े लक्ष्यों और मृत्यु के दार्शनिक अभिप्रायों के सामने खड़े किसी किशोर निचिकेता का अपना प्रतिप्रश्न है,जिसके सहारे वह मनुष्यता को एक नयी संभावना से आलोकित करता है,किसी टूटी हुई पंखुरी को फिर से जोड़ डालता है.किसी गिरे हुए फूल को फिर से डाली तक वापस ले आता है.साहित्य बौध्त्व और निर्वाण के प्रशस्त मार्गों के बीच उन पगडंडियों की पहचान है, जहाँ कातर मनुष्यता अपने अभावों,अपनी अप्र्याप्ताओंके साथ अपना घर खोज रही होती है.वह व्यवस्थाओं के बाड़े से परे, विचारों के बीहड़ से बाहर एक ऐसा शरण्य है, जहां हमारा विद्रोही विवेक बसता है,जहाँ हमारे निर्वासित स्वप्न रहते है.
क्या हममे से बहुत सारे लोगों के बीच अक्सर यह सपना नहीं जगता की वे अपने बचपन की किसी सुबह में जगे और पाए की यह सारा जीवन बड़ा सपना-भर था, जिसे नए सिरे से उन्हें जीना है? दरअसल साहित्य यही सपना है जो जीवन में बार-बार लौट कर आता है.अशोक बाजपेई अपनी एक कविता में उन सारी चीजों की फेहरस्ति बनाते है जो वह अपने जीवन में बदलना चाहते है, इस ढंग से देखे तो साहित्य हमारी मनुष्यता का पुनराविष्कार करता है.हिंदी के दिवंगत उपन्यासकार निर्मल वर्मा के अंतिम उपन्यास `अंतिम अरण्य` का नायक अपने जीवन को याद और दर्ज करता है ,जिसे उसने जिया नहीं था और जीना चाहता था.
विख्यात रुसी लेखक अन्तोव चेखव पर अपने एक लेख के आखिर में मक्सिम गोर्की लिखते है मनुष्य संसार की धुरी है.कोई कहेगा,उसमे तो इतने अवगुण हैं ,इतनी कमियाँ है. हम सब इंसान के लिए प्यार के भूखे है और भूख लगने पर अधपकी रोटी भी स्वादिस्ट लगती है.इस अधपकी रोटी का स्वाद लेने के लिए इस आधी अधूरी इंसानियत को पहचानने के लिया बकौल ग़ालिब`ईमां मुझे रोके है,खीचे है मुझे कुफ्र` की दुविधा का साथ जीने वाले मनुष्य को समझने के लिए साहित्य एक खिड़की .,एक दरवाजा,एक रास्ता खोलता है .वह दंशकाल का अतिक्रमण करता है,सभ्यताओं के आर-पार जाता है और हमारे लिए एक ऐसा त्रिपाशर्व, एक ऐसा प्रिज्म रचता है जिसमे हमारे सारे रंग अलग-अलग दिखाई पड़ने लगता है.श्री कान्त वर्मा बताते है की असल में विचारों की कमी और हमें अपने समय की विचाराशुन्यता समझ में आती है या विचारों का वह आधिक्य दिखाई पड़ता है जो अंततः उन्हें बेमानी बना डालता है
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जो लोग साहित्य को उपभोग की अपनी कसौटियों पर कसते हुए बेकार और बेमानी पाते है,वे यह नहीं समझ पाते की इस स्मृति शिथिल और उपभोग आक्रांत समय में साहित्य ही वह सहारा है जो हमें बचाए रखता है,जो यह भरोसा दिलाता है की धार लौट कर एगी,पंखुडियां फिर से फूल का हिस्सा बनेगी और जीवन के नए उपाय और अभिप्राय बनते रहेंगे !!.साभार-प्रियदर्शन.

Tuesday, December 30, 2008

कसाब नहीं है तेरा तो किसका है ?

एक और जहा करकरे की शहादत पर राजनीति हो रही है भारत सरकार जांच को आगे न बढा कर अंतुले को आगे बढा रही है !पकिस्तान को दवाब मैं न लाकर खुद दवाब मैं आ रही है वहीँ मुनव्वर राणा लिखते है .....
ये इन्तखाब नहीं है तेरा तो किसका है...
ये हरजाब नहीं है तेरा तो किसका है...
क्यों अपने लोगो को पहचानता नहीं है तू...
अगर `कसाब` नहीं है तेरा तो किसका है ?

क्रांति के मायने..

``कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ की उथल-पुथल मच जाए``... ..,वीर रस की कविताएँ अब हास्य पैदा करती है, दिनकर का अंदाज अब निराला लगता है ! नारे,क्रांति,परिवर्तन ये सब घिसी-पिटी बातें लगती है !
दरअसल 1947 के बाद से ही देश का कोई न कोई हिस्सा, कोई न कोई तबका `यह आजादी झूठी है`या `यह लोकतंत्र फर्जी है` का नारा लगता आ रहा है लेकिन इन नारों की आड़ मैं हमेशा हुआ यह है की उन्हें लगाने वालों ने व्यवस्था में अपना हिस्सा बढाने या उसके साथ कोई नया समीकरण बैठाने की मांग की है और जैसे ही उनकी मांग पूरी हो जाती है वे यह मांग करना बंद कर देते है और आर्थिक-राजनितिक अवसरों की होड़ में लग जाते है !विद्यालय से लेकर विस्वविद्यालय तक की पढाई में हमारा परिचय जिस क्रान्ति शब्द से हुई है वह है-फ्रासीसी क्रांति,औधोगिक क्रांति, रूसी या कयूबाई क्रांति ! इन क्रांतियों के इतिहास के अध्ययन से हमारी सोच में क्रांति का मतलब रहा राजनितिक,सामाजिक,आर्थिक विसमताओ, शोषण आदि से मुक्ति के लिये सत्ता और व्यवस्था का आमूल चुल परिवर्तन करना!सब जानते है की इन क्रांतियों ने अपने-अपने मुल्क में लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था का निर्माण का मार्ग प्रसस्त किया है !
वर्तमान समाज में क्रांति का अर्थ अब स्त्री के देह से कपडे उतरने या असामाजिक होने से रह गया है..!

Friday, October 17, 2008

the white tiger

स्व महिंद्रा कपूर साहब का एक गाना है-अंधेरे में जो बैठे है नजर उन पर भी कुछ डालो अरे ओ रौशनीवालो.....!कुछ इसी तरह के जज्बात से प्रेरित हो कर लिखी गई कहानी the white tiger(850 रु) को बुकर पुरुस्कार मिल गया है ! ऑस्ट्रेलिया नागरिकता प्राप्त भारतीय मूल के ३३ वर्षीय अरविन्द अदिगा ने the white tiger लिख कर इस तरह के विचारों को व्यापक स्वरुप दे दिया है !कहानी में नाम और पैसा कामने के आम आदमी के जद्दोजहत को लिखा गया है ! कहानी का नायक बलराम हलवाई उस वंचित जमात से ताल्लुक रखता है जो वर्तमान उपनिवेशवादी ऑफर से वंचित रहा है !एक रिक्शा चालक के बेटे की कहानी जो डेल्ही होते हुए बेंगलोर पहुँचता है और एक कारपोरेट बनने के लिए कई हथकंडो को अपनाता है !बाकलम अरविन्द अदिगा-भारत में दो तरह का देश बसता है -एक रोशन भारत तो दुसरा अन्धकार भारत और वर्तमान आर्थिक व्यवस्था दोनों के बीच की खाई को बढ़ा रहा है !यहाँ आगे बढ़ने के दो ही रस्ते है-अपराध और राजनीति !कुछ आलोचकों के आवाज़ भी आनी शुरू हो गई की भारत की पगड़ी को उछाल कर एक और पुरस्कार ले लिया गया .पश्चिम के लोग भारतीय दशा को पढ़कर खूब एन्जॉय कर रहे है !गौरतलब है की रौशनी मे रहने वाले लोग ने अपनी ही बिरादरी के लोगो को सम्मानित किया है लेकिन अंधेरे में रौशनी डालने की बात तो जरूर हुई है !जब बात मानवता और समानता की हो तो हमें सरहद से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए ! बलराम हलवाई भारत के उस अदृश्य वर्ग का नुमाइंदा है जो आर्थिक समृधि में बहुत पीछे है !ये कहना है लेखक महोदय का, लेकिन देखना है की पुरस्कार प्राप्ति के बाद वो किसके नुमाइंदे बन कर रहते है !हालंकि भविष्य के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा है की मैं उन लोगों के बारे में लिखना चाहता हूँ जिनके बारे मे लिखा नही गया है !

Monday, October 13, 2008

धन व जन का प्रवाह ...

कौन रोग लग गया देश कों आओ करे विचार !
कई बाँध बांधे भारत ने कितने सेतु बनाए !
सडकें कितनी बनी और कितने है पेड़ लगाए !
भितिया तक बिजली तो पहुंची पर काटे किसने तार !
कौन रोग लग गया देश को आओ करे विचार !
सरकारी आंकडों पर गाँव को बिजली के तार और सडकों पर कोलतार बिछाने की कवायत हमारे चेतनाशक्ति के आने के पहले से चली आ रही है लेकिन अनुभव ये रहा है की उदघाटन के बाद स्थिति और भी बदतर व बेसुध हो कर रह गई १अखिर क्यो न हो किसी की आत्मा का दम घोटकर उसकी काया को कब तक और कहा तक संवारा जा सकता है हालत ये हो गए है की शहर और गाव के बीच की दुरी को अब नापा भी नही जा सकता है !समझ मे ये नही आता की विकाश की यह आस्थाई और असामान्य धारा बंगाल की खाडी में गिरेगी या हडसन की खाडी मे ?
आम तौर पर महानगर मे रहने वाले सफेदपोश आदमी,जिसे जमीन से लगाव का अर्थ भी समझ में नही आता हर कीमत पर विकास का हिमायती है !दरअसल ये दुराव हमारे इतिहास मे दर्ज है शुरुवात तब हुई जब 1800-1850 में इंग्लैंड में औद्योगीकरण का दौर था !इस काल में भारतीय उद्योग का इस कदर ह्रास हुआ की हमारी अर्थव्यवस्था विदेश के हाथो मे काली गई !कार्ल मार्क्स के अनुसार -यह अँगरेज़ घुस्पेथिया था जिसने भारतीय खड्डी और चरखा को तोड़ दिया !पहले इंग्लैंड ने भारतीय सूती माल को यूरोप की मंदी से बाहर कर दिया और भारतीय बाजारों को मानचेस्टर और लंकशयार में निर्मित कपडों से भर दिया !धन के बहिर्गमन का यह खेल विभिन्न रूपों में चलता रहा !
उदारीकरण के रूप में इसका विस्तार हर वस्तु और हर क्षेत्र में फैल गया !धन के बहिर्गमन के साथ-साथ लोग भी गमन करने लगे !ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई गाँव उजड़ने लगे और शहर विकराल रूप लेने लगा ..! धन और जन का यह बहिर्गमन बहते घाव के सदृश है .......... ..कोई एहसास तो करें !

Sunday, October 12, 2008

उदारीकरण की तानाशाही

किसी के एक आंसू पर हजारों दिल धड़कते है,किसी का उम्र भर रोना यूं ही बेकार जाता है ! अब तो आंसू पोछने मैं भी कोताही बरती जाने लगी है हाय रे उदारवाद !हजारों किसानों की आवाज को टाटा की एक धमकी ने चुप करा दिया ! नंदीग्राम और सिंगुर जैसी घटना भी बेअसर रही भारतीय उदारवाद के सच को नंगा करने में ,क्या ये बलिदान भी बेकार जाएगा ? आखिर क्या होगा इन आवाजों का ?आपके विचार जानने को बेकरार एक दबी सी आवाज !